कहीं बीन रहा कभाढ....
घिसटती प्लास्टिक का झगूला सा लिए
कहीं
कहीं धोते हुए झूठन किसी और का...
कहीं ढूँढते भटकते हुए,
अपने अस्तित्व को......
दो जून की रोटी.!!
सवाल पेट की आग का काश़ ..
मैं भी..पढ़ता ..
खेलता साथियों के संग
ना जाने इस अंधे शहर के कुंभ में,
क्या कहीं अपना घर नहीं होता??
बिछुड़ने के बाद अम्मी अब्बा कहॉं चले जाते होगें !?
काश़ ...! मॉं कहती....
बस कर मेरे बेटे..
चल.. घर चल..!!
प्रस्तुतकर्ता: भावना जोशी
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