उड़ा रहे हैं
बस फैलाए जा रहे हैं
बगैर परवाह करे संतुलन की
जो बदल रहा है
बिगड़ रहा है
क्या आज संभलने की जरुरत नहीं?
डाईनासौर की भांति तो मनुष्य की अकल नहीं
वो तो सोच सकता है,
प्रकृति के रंग में खुद को ढाल सकता है
पर सोचता कोई नहीं
क्योंकि
बस फैलाये जा रहे हैं
उड़ाए जा रहे हैं
भविष्य चिंतन किये बिना बस
आज में जिए जा रहे हैं.
धरती पर से तत्त्व लिए जा रहे हैं
प्लास्टिक के रूप में उसे ढाले जा रहे हैं
धातुओं से उपकरण बनाये जा रहे हैं
माटी से उँचे मकान बना रहे हैं
पर इस सब के बीच
क्या पर्यावरण से हम किनारा
किए नहीं जा रहे हैं?
जन सुविधाओं का लाभ
उठाना नहीं चाहते
खुद के कदमो को भी कष्ट
देना नहीं चाहते
जगह-जगह लगा रहे हैं पंडाल जन सेवा हेतु
जगह-जगह लगा रहे हैं पंडाल जन सेवा हेतु
परन्तु साथ मे एक कूड़ादान लगाने का कष्ट
उठाना नहीं चाहते
देख रहे हैं चाय-शरबत बट रही है
पंडाल मे भीड़ है
पर फिर भी ये मौका
गवाना नहीं चाहते
व्यर्थ समय नष्ट करना मंजूर है
पर इस्तेमाल के बाद कचरा पात्र का उपयोग.....
करना नहीं चाहते
आराम दायक ज़िन्दगी के मजे लेने मे मशगूल हैं
महंगी गाड़ियों मे घूमने के
शॉक भी खूब हैं
गाड़ी मे बैठे वेफर्स तो खूब खाते हैं
पर कचरे को कभी क्या सड़क पर फेकने से चूक जाते हैं?
फैलाइये
और फैलाइये
इतना फैलाइए की जगह-जगह हो जाए
बस
कूड़ा ही कूड़ा
पर ध्यान दीजिये इस प्रकृति पर
जो समय-समय घडी-घडी
चेता रही है,
हमें जगा रही है
की अति अच्छी नहीं संतुलन बना रहना चाहिए
की अति अच्छी नहीं संतुलन बना रहना चाहिए
धरती एक अद्भुत संतुलित प्रदेश है
इसे बदलना नहीं चाहिए
इसे बदलना नहीं चाहिए....
प्रस्तुतकर्ता: अखिल तिवारी
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